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कश्मीर फाइल्स: फिल्म के नाम पर नफरती प्रोपेगेंडा

 भारतीय समाज की विडंबना ये है की बुद्धि और बुद्धिजीवी से बैर रखो लेकिन नफरती प्रचार को सच मानो, लिखित और सर्वमान्य इतिहास गलत है पर संघ और फासीवादियों द्वारा बताए जा रहे घटनाक्रम सच है, इतिहास पढ़ने और उसकी विवेचना करने वालो का ब्रेनवाश हुआ है पर जाने माने झूटे लोग सच्चे हैं।




कोई वामपंथी (कम्युनिस्ट) कश्मीरी पंडितो के ऊपर हुए अत्याचार को नकारता नही है, किसी का ये कहना नही है की पंडितो के साथ गलत नहीं हुआ, जबरदस्ती विस्थापन जहां कही भी होता है वो गलत ही है, और जब कश्मीर में अफगानिस्तान और दूसरे कबायली क्षेत्र से इस्लामिक कट्टरपंथियों का आना शुरू हुआ तब उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले कम्युनिस्ट ही सबसे आगे थे। पर तब ये संघ के लोग क्या कर रहे थे, केंद्र में सरकार इन्ही के समर्थन से चल रही थी। उस समय कश्मीर का राज्यपाल जगमोहन जो की एक संघी व्यक्ति ही था उसने पंडितो को रोकने के लिए क्या किया? जगमोहन ने न सिर्फ टीवी से पंडितो के रुकने के लिए अपील करने से मना कर दिया बल्कि घाटी के अंदर ही रिफ्यूजी कैंप बनवा दिए जिससे पंडितो का मनोबल और टूट गया।

नब्बे में जब एक तरफ देश दिखावटी समाजवाद के मुर्दे को गाड़ कर पूंजीवाद को अपना रहा था उसी के साथ साथ देश में फासीवादी ताकतें राम मंदिर के नाम पर देश नफरत की राजनीती का उदय हो रहा था। केंद्र में भाजपा 85 सांसदो का समर्थन देकर सरकार के साथ बैठी थी, उसने कश्मीर में मौजूद फौज को पंडितो की सुरक्षा के लिए लगाने पर सरकार को क्यों मजबूर नहीं किया, क्यों इस मुद्दे पर सरकार नहीं गिरा दी? असल में तब ये मस्जिद गिराने की रथ यात्रा में व्यस्त थे और अडवाणी के गिरफ्तार होने पर ही इन्होने सरकार गिरायी ना की कश्मीरी पंडितों के विस्थापन पर।

भारत की हिंदुत्ववादी संघी सरकार के लिए ये एक राजनैतिक सौदा ही था जिसके तहत वो पंडितो के दर्द को हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकती थी, और कश्मीर का आजादी आंदोलन जिसको पंडितो का भी समर्थन मिल रहा था उससे पंडितो को अलग कर, आंदोलन को कमजोर करना भी आसान था, हिंदू मुसलमान की मिश्रित आबादी के आंदोलन का उस निर्ममता पूर्वक दमन संभव न था जितना सिर्फ मुसलमानों का। आइए अब कश्मीर के सामाजिक और वर्ग चरित्र पर नजर डाले। पंडित जो की लगभग सभी पढ़े लिखे थे ज़ादातर जमीनों का मालिकाना हक रखते थे, अफगान फिर मुगल और उसके बाद डोगरा राजा के शासन में पंडित हमेशा ही राजतंत्र संभालते रहे, मुसलमान मेजोरिटी भू दास (serf) और बाद में खेतिहर मजदूर ही थी, असल में तो ये संघर्ष हिंदू मुसलमान का था ही नही बल्कि जमींदार और किसान का था ठीक उसी तरह जैसे उत्तर प्रदेश में आजादी के पहले मुसलमान जमींदार थे और हिंदू किसान और बंगाल में मुसलमान किसान और हिंदू जमींदार, उत्तर प्रदेश जहां कांग्रेस और कम्युनिस्ट (आजादी से पहले) किसानों को लामबंद करने में सफल रहे वहीं बंगाल में अंग्रेज़ों ने मुस्लिम लीग की मदद से वर्ग संघर्ष को धार्मिक संघर्ष में बदल दिया। कश्मीर के भारत में मिल जाने के बाद तमाम भूमि सुधार हुए, जमीन किसानों में बांटी गई, अगर हम याद करें तो कश्मीर का झंडा कोई इस्लामिक झंडा नही था बल्कि वह लाल झंडा था जिसपर हल बना था। लाल चौक का नाम लाल चौक क्यों है? हरा चौक क्यों नहीं? आजादी के बाद 1958 में जननेता शेख अब्दुल्ला को नेहरू सरकार ने पाकिस्तान परस्त होने और पाकिस्तान से पैसे लेने तथा भारत के खिलाफ साज़िश के आरोप में जेल में डाल दिया पर छः साल बाद सबूत न होने पर छोड़ भी दिया गया। 85 के इलेक्शन में खुले आम हुई धांधली ने जनता का बचा खुचा विश्वास भी भारतीय लोकतंत्र में भंग कर दिया। 90 आते आते जब अफगानिस्तान से अमेरिकी प्रायोजित मुजाहिद और असलहे खाली होने लगे तब आई एस आई ने उन्हें कश्मीर की तरफ मोड़ दिया। मुजाहिदीन जब कश्मीर पहुंचे तो उनके लिए जनता की एकता तोड़ना सबसे जरूरी था उसके बिना कश्मीर को जंग की जमीन बनाना असंभव था। इसे समझने के लिए ऐसे देखे की भारत के जिन शहरो में दंगे होते हैं उनमें मुसलमान और हिंदू आबादी अलग अलग इलाकों में बसती है (कानपुर, दिल्ली, अलीगढ़, मुंबई) और वो शहर जिनके आबादी काफी हद तक मिली जुली इलाको में रहती है वहां दंगे नही होते (जयपुर, लखनऊ, इलाहाबाद)। धार्मिक कट्टरपंथ जब कश्मीर में अपनी जड़े फैला रहा था तब आम कश्मीरी मुसलमान डर कर चुप चाप बैठा था ठीक वैसे ही जैसे आज भारत में आम हिंदू जिसे मुसलमानों से कोई नफरत नहीं है चुप चाप बैठ कर तमाशा देख रहा है। जिस मुसलमान ने आवाज़ उठायी वो भी मारे गए, सरकार ने सब कुछ होते चुप चाप देखा और कश्मीरी पंडित डरा कर कश्मीर से निकाल दिए गए। अब सवाल ये है इस इतिहास से हम क्या सीख लेते हैं? ये की जो पंडितो के साथ हुआ हम उस दर्द को हथियार बना कर भारत के हिंदू बाहुल्य क्षेत्र में इस्तेमाल करें या फिर वो कदम उठाए जाए जिससे ऐसी स्थिति कही और पैदा न हो सके? मरने वालो में 99 प्रतिशत मुसलमान ही हैं। सवाल ये भी है की क्यों ठीक यही समस्या मणिपुर में होती है तो किसी को मालूम नही चलता? साफ है की मणिपुर में हिंदू मेजोरिटी ही भारत सरकार के खिलाफ है, वहां भी अफस्पा लगा हुआ है और ठीक कश्मीर जैसी स्थिति और प्रकरण वहां भी होते हैं, पर हिंदुत्ववादी सरकार हिंदुओं पर ही गोली चला कर उसे वोट की राजनीति में नहीं बदल सकती।

कश्मीरी पंडितो का विस्थापन हर इतिहास पढ़ने वाला जानता और मानता है और दुबारा ऐसा कही न हो इसके लिए प्रयासरत रहता है, आज जब लगभग सभी जगह कश्मीरी पंडित इतिहास के इस काले अध्याय से सफलता पूर्वक आगे बढ़ चुके हैं तब फिल्म द्वारा झूठे आंकड़े पेश करके नफरत बढ़ाने का मकसद कश्मीर का नाम लेकर हिंदी बेल्ट में नफरत बढ़ाना है। और मेनलैंड की अपर कास्ट मेजोरिटी को अगर न्याय की परवाह है तो उसे दलितों, आदिवासियों पे हुए सैकड़ों साल के जुल्म, उनके विस्थापन के खिलाफ भी आवाज़ उठानी चाहिए। खासकर तब जबकि ये तबके आज भी ब्राम्हणवादी जुल्म के शिकार हैं और आज तक लगातार अपनी ज़मीनो से उजाड़े जा रहे हैं । अब लोगो का कहना यह है की ऐसे तो शिंड्लर्स लिस्ट, जय भीम, फिराक, जैसी फिल्में भी एक तबके पर हुए अत्याचार का वैसा ही वर्णन है, तो फिर कश्मीर फाइल्स गलत क्यों?

इन लोगो को ये देखना चाहिए की शिंडलर्स लिस्ट देखकर कोई "जर्मन काटे जायेंगे" के नारे नही लगाता, जय भीम देखकर किसी ने भड़काऊ भाषण नही दिया, ये नही कहा की जादा से जादा सवर्णों के लड़कियों से शादी करो, सिनेमा हालों से जिस तरह के वीडियो आ रहे हैं उससे साफ है की फिल्म नफरत फ़ैलाने के अपने मकसद में कामयाब भी हो रही है और इसीलिए जय भीम जैसी फिल्मों को सराहा जाता है और कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में नकारी जायेंगी।

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