साथियों!
हम सभी मौजूदा समय में सांप्रदायिकता और उससे उपजने वाली हिंसा से दो चार है, सभी प्रोग्रेसिव लोग जो नागरिकों की बराबरी के सिद्धांत में विश्वास रखते थे और अमूमन अन्याय होते समय न्याय व्यवस्था और पुलिस प्रशासन की तरफ न्याय की आशा से देखते थे इस समय ये जान चुके हैं की मौजूदा व्यवस्था अल्पसंख्यकों, दलितों और दूसरे हाशिए पर पड़े पिछड़े वर्गो के दमन और शोषण के अलावा कुछ नही कर सकती।
क्या किसी अन्य पार्टी की चुनावी जीत जमीन पर मौजूद सांप्रदायिक संगठनों उनके द्वारा बरगलाए युवा बेरोजगारों की मध्य वर्गीय फौज से लड़ने में सक्षम है? क्या हम सौ साल के फासीवादी प्रचार और उसके द्वारा खड़ी की गई सेना, सांप्रदायिक पुलिस, जज और व्यवस्था से मात्र सत्ता में पार्टी बदलकर लड़ सकते हैं? जवाब पाने के लिए जादा दूर नही दिल्ली में केजरीवाल सरकार को ही देख सकते हैं जो नित नए सांप्रदायिक फैसले लेकर बैलेंस वादी राजनीति खेलने पर मजबूर है, किसी भी विचारधारा से आजाद पार्टियों का यही चरित्र है, ऐसे में भाजपा जीते या हारे जमीन पर संघ का ही काम चलता है। दूसरे जबकि विभिन्न फासीवादी संगठन मोहल्ले मोहल्ले अपना नेटवर्क फैला चुके हैं तब क्या हम ऊपर ऊपर के सतही बदलाव से इस पैदल फौज से लड़ सकेंगे?
इस लड़ाई के लिए हमे पहले मौजूदा समस्या को समझना होगा,पूंजीवादी जब परंपरागत एलीट शासक वर्ग द्वारा शोषित पीड़ित जनता पर नियंत्रण रखने में नाकाम होने लगता है तब उसे एक निरंकुश नग्न तानाशाही की जरूरत पड़ती है, यही हमने 2014 में कांग्रेस की हार और भाजपा के सत्ता में आने के साथ देखा, पिछले छः सालों में हमने इस निरंकुश तानाशाही के परिणाम देखे हैं जहां पूरा समाज बेकार के साम्रदायिक मुद्दो में फसा हुआ है वहीं इसकी आड़ में तमाम जनता के उपक्रम फैक्ट्रियां बेचे जा रहे हैं, निजीकरण की रेल अंधी दौड़ रही है, एलआईसी से रेलवे तक, नई शिक्षा नीति, नए लेबर कोड तमाम तरह के जन विरोधी बदलाव बड़े पूंजीपतियों के हित में किए गए हैं।
इस समय जरूरत है संगठित होकर फासीवाद की समस्या समझने की और उससे संघर्ष करने की, हमे संघर्ष के रास्ते को समझना होगा। और इस किस सिद्धांत के तहत ये संघर्ष होगा समझना होगा।
ऐसा नहीं है की चुनाव में भाजपा के हारने से कोई राहत नहीं मिलनी, और जहां तक चुनाव में हमारे वोट का सवाल है वो भाजपा को हराने के लिए ही पड़ना चाहिए लेकिन उसके बाद क्या? समस्या क्या है और उससे कैसे लड़ सकते हैं? जब 2009 में बीजेपी हारी थी तो सबको लगा था फासीवाद का अंत हो गया पर 2008 की इकोनॉमिक क्राइसिस के बाद पूंजीपति वर्ग को अपने हित में फैसले लेने के लिए ऐसी पार्टी की जरूरत थी जो मजदूर आंदोलनों को कुचल सके, बड़े पूंजीपतियों के हक में अंधाधुध फैसले ले सके, निजीकरण कर सके, कुशल बेरोजगारों की एक सस्ती फौज तैयार कर सके, ऐसा सिर्फ फासीवाद की आड़ में एक फासीवादी पार्टी ही कर सकती थी और इसको भाजपा और बाकी पार्टियों को मिलने वाले चंदे में फर्क से हम समझ सकते हैं, हिंदू मुसलमान की आड़ में, देश के बाहर और भीतर काल्पनिक दुश्मन दिखा के कुछ भी किया जा सकता है।
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